अपने ही देश में हिंदी की ऐसी हालत क्यों? -पीयूषकांत

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हिंदी हैं हम?

साहित्य मनुष्य को संवेदनशील और भयमुक्त बनाता है। वह अपने समाज और लोगों में विवेक तथा बोध का भी निर्माण करता है। वह मनुष्यता को सदैव बल प्रदान करता है। समाज को दिशा दिखाता है, साथ ही उसकी दशा को भी दर्शाता है। वह किसी भी भाषा का साहित्य हो। हिंदी भी अपने समाज में उपर्युक्त दायित्व को निभा रही है। समाज का भी अपनी भाषा और उसमें निर्मित साहित्य के प्रति कुछ कर्तव्य है। सरकार और व्यवस्था की जिम्मेदारी है कि उसके पठन-पाठन का समुचित ध्यान रखे।

आज शिक्षा के विकास में सरकार से ज्यादा कारपोरेट की भागीदारी दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। शिक्षा का निजीकरण हो रहा है, जिससे हिंदी का उच्च शिक्षण भी प्रभावित हो रहा है। इसके अलावा तकनीक और प्रबंधन के बरक्स साहित्य का अध्ययन हाशिए का मामला होता जा रहा है। अंग्रेजी के आतंक के सामने भारतीय भाषाओं के साहित्य का अध्ययन सामान्यत: बौना साबित होता जा रहा है। हिंदी देश के सबसे बड़े जनसमूह की भाषा होने के बावजूद अंग्रेज़ी के सामने हीनताबोध का शिकार दिख रही है। यह पूरे देश में वोट मांगने का माध्यम तो हो सकती है, लेकिन हिंदी ही क्यों कोई भी भारतीय भाषा देश में उच्च शिक्षा का माध्यम नहीं हो सकती। यह एक बड़ी बिडंबना है। इसकी रोशनी में हिंदी शिक्षा के स्वरूप के संबंध में नए सिरे से सोचने के लिए हमारे युग में एक बड़ा दबाव बन चुका है।

विज्ञान और प्रौद्योगिकी के उत्तरोत्तर विकास के युग में भारत में हिंदी को लेकर भारतीय समाज में कोई बौद्धिक माहौल तैयार करना कठिन कार्य है। इसके लिए हिंदी के उच्च शिक्षण पर प्रचुर ध्यान देने की जरूरत है।

हिंदी में उच्च शिक्षण की शुरुआत के सौ साल हो रहे हैं। 2019 शताब्दी वर्ष है। निश्चय ही साहित्य के अध्ययन और अध्यापन का उद्देश्य हमेशा उदात्त रहा है। साहित्य समाज में विश्वबंधुत्व और लोकमंगल का संदेश देता रहा है। जीवन में यांत्रिकता के दबाव को कम करने में भी साहित्य की बड़ी भूमिका है।

लेकिन यह प्रश्न भी मुंह बाए खड़ा है कि रोजगारपरक शिक्षण के दौर में कोई विद्यार्थी हिंदी मे उच्च शिक्षा क्यों प्राप्त करें? आखिर हिंदी के उच्च शिक्षण को कौन-सा रूप दिया जाए कि इसमें रोजगार के साथ ज्ञान के भी उच्च द्वार खुलें। इस पर आज सोचने कि जरूरत महसूस हो रही है।

भारत जैसे देश में हिंदी भाषा और साहित्य तथा मानविकी के अन्य विषयों में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए आईआईटी, आईआईएम तथा एम्स जैसी उच्च स्तरीय संस्थाएं नहीं हैं और न ही किसी निजी विश्वविद्यालय में हिंदी कि पढ़ाई स्वतंत्र रूप से होती है। ऐसे में साहित्य और मानविकी के विद्यार्थी 21 वीं सदी की चुनौतियों का सामना कैसे करें, यह एक विचारणीय मुद्दा है।

देश के विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों में 21 वीं सदी की चुनौती को देखते हुए भौतिक और मानव संसाधन उपलब्ध नहीं हैं। सरकारें भी इसके प्रति उदासीन हैं। ऐसी स्थितियों में परंपरागत उद्देश्यों के प्रति सचेत रहते हुए आधुनिक और नवोन्मेषपरक शिक्षण कौशल ईजाद करना जरूरी होता जा रहा है। हिंदी के उच्च शिक्षण को अब समुचित रूप से समावेशी होना जरूरी है, तभी विद्यार्थी में बौद्धिक प्रवीणता के साथ कुशलता आएगी। सवाल है यह काम कैसे हो, कहाँ से शुरू हो।

क्या वर्तमान युग में अलगाववाद, सांप्रदायिकता, शोषण-उत्पीड़न, आतंकवाद और स्वर्थांधता से मनुष्यता को बचाने में साहित्य कि कोई भूमिका हो नहीं सकती है? साहित्य पढ़ कर भाषा कौशल का विकास भी तो किया जा सकता है।  यह भावात्मक राष्ट्रीय एकता के लिए  सहायक हो सकती है और विघटनकारी शक्तियों का विरोध भी इसके जरिए संभव है।  इसके अध्ययन से  पर्यावरण सुरक्षा में भी मदद मिल सकती है। इन सबके बावजूद आज भौतिकता और अतिव्यावहारिकता के दबाव में हिंदी की भूमिका पर्याप्त नहीं मानी जा रही है।

हिंदी में शोध कार्यों की वर्तमान स्थिति संतोषजनक नहीं है। समाज से कटे हुए नीरस ज्ञान आज के शोधों में भरे हुए हैं। ‘कट एंड पेस्ट’ हिंदी शोध की महत्वपूर्ण पद्धति होती जा रही है। इससे संदेह होता है कि हिंदी विभागों में हिंदी के उच्च शिक्षण को नए जमाने के अनुरूप अर्थपूर्ण बनाने की आखिर कितनी तैयारी है। अधिकांश प्रोफेसरों को केवल अब पे-कमीशन की चिंता सताती है।  सरकार या व्यवस्था भी इसके प्रति एकदम उदासीन हैं। हिंदी की रोटी खाने और उसके नाम  को बेचनी वाली हिंदी प्रेमी स्वयंसेवी संस्थाएं भी इसके लिए आगे नहीं आती।

देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों की साहित्यिक उत्पादकता भी संदेहास्पद है। कितने महत्वपूर्ण शोध कार्य हो रहे हैं, साहित्य और समाज को समझने में इनकी भूमिका घटी या बढ़ी है? यह प्रश्न भी परेशान करता है।

21 वीं सदी की  चुनौती को देखते हुए नवाचार का समायोजन जरूरी है। एक आकड़े के अनुसार पारंपरिक शिक्षा के तहत जब महाविद्यालय के 80 फीसदी और विश्वविद्यालय के 60 फीसदी विद्यार्थी रोजगार के लायक नहीं हैं। ऐसे में हिंदी के उच्च शिक्षण को रोजगारोन्मुख, कौशलोन्मुख और नव-ज्ञानोन्मुख कैसे बनाया जाए, इसके लिए सरकार, समाज के बौद्धिकों और शिक्षाविदों को बैठ कर विचार मंथन करने की जरूरत है।

साहित्य के शिक्षण को संरचनावाद, उत्तर-आधुनिकतावाद के पाठों ने पारंपरिक अध्ययन-अध्यापन के तरीकों को बदला था। हम वर्तमान में इससे आगे कैसे बढ़ सकते हैं, यह भी एक बड़ा सवाल है। साहित्य के बाहर सूचना और संचार कि आधुनिकतम प्रविधियों ने अध्ययन-अध्यापन के नए द्वार खोले हैं। हम ऐसे मोड़ पर खड़े हैं जहां विश्व कि सभ्यताएं पारस्परिक आदान-प्रदान कर रही हैं और इससे नई संभावनाएं बनी हैं। उपर्युक्त तमाम बातों पर ध्यान देते हुए हिंदी के उच्च शिक्षण के बारे में विचार करने की जरूरत आन पड़ी है। क्योंकि किसी भी समाज का विकास उसके जुबान और उसमें लिखित साहित्य के अध्ययन-अध्यापन की समुचित व्यवस्था पर भी निर्भर करता है, न कि महज तकनीकी और वैज्ञानिक समृद्धि पर। समाज की उन्नति का मूल मंत्र उसकी भाषा की उन्नति में ही सन्निहित है। आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रवर्तक भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने ठीक ही लिखा है कि,

‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।

बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय के सूल।’

 

 

 

 

 

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One Reply to “अपने ही देश में हिंदी की ऐसी हालत क्यों? -पीयूषकांत”

  1. Shambhu chudhary says:

    अच्छा लेख

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