किसका श्रेय

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एक कुम्भकार ने दो घट गढ़े। दोनों को अलग-अलग रूपाकार देकर उसने एक को चिकना बनाया और दूसरे पर कुछ कारीगरी कर दी। उस पर की गईं नक्काशियां अति उत्तम थीं। उसकी रंग-योजना भी इतनी सुरुचिपूर्ण थी की वह अत्यंत मनोहर लगाने लगा। दोनों एक ही आले पर पास-पास रखे हुए थे।
चिकने ने नक्काशीदार को प्यार से पूछा – ‘भैया!’ ‘तनिक दूर ही रहना’। – नक्काशीदार बेरुखी से बोला। चिकने ने फिर भी भाईचारा रखते हुए कोई बात करनी चाही तो, नक्काशीदार झुंझला उठा। उस पर अपनी सुंदरता का नशा छाया हुआ था। अपनी सुन्दरता पर इतराते हुए उसने चिकने को झिड़क दिया।
दूसरे दिन कुंभकार की कृतियों का मेला लगा था। उसके बनाये घटों को जांचा परखा गया और पुरस्कृत भी किया गया। लोगों ने ऐसे सुन्दर घट बनाने क लिए उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की।
‘कितनी चिकनाहट है! लगता है संगमरमर हो!’ – चिकने की प्रशंसा हुई। ‘ और इन बेलबूटों को देखो!’ – कोई नक्काशीदार को देख रहा था। ‘ हाँ यह भी अच्छा है।’ ‘बेल-बूटेदार हों या चिकने, चमकदार – सब में कलाकार का हाथ की खूबी झलकती है।’ ‘ हाँ, मैं तो इन्हें इसलिए ले। जाऊँगा ताकि इन्हें गढ़ने वाले की उपस्थिति को महसूस करता रहूँ।’

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