रघुवंश प्रसाद सिंह… मैथ्स का प्रोफेसर और राजनीतिक गुणा-भाग में माहिर

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खबरीलाल डेस्क, पटना। साल था 2009, वक्त लोकसभा चुनाव का. तोड़-जोड़ और चुनावी शोर के बीच आरजेडी ने कांग्रेस से अलग चुनाव लड़ने का फैसला किया. लेकिन लालू यादव के इस फैसले का एक शख्स ने विरोध किया. लालू के फैसले का विरोध मानों ‘नामुमकिन’ शब्द. लेकिन विरोध करने वाला तो ठहरा मैथ्स का प्रोफेसर, राजनीतिक गुणा-भाग में माहिर. फिर भी लालू ने उनकी नहीं सुनी और नतीजा ये हुआ कि 22 सांसदों वाली पार्टी सिर्फ 4 पर सिमट गई. लालू ने जिनकी बात नहीं सुनी थी उनका नाम था रघुवंश प्रसाद सिंह.

आरजेडी नेता रघुवंश प्रसाद सिंह का निधन हो गया है. रघुवंश दिल्ली के एम्स में भर्ती थे. अभी कुछ दिन पहले ही उन्हें कोरोना का संक्रमण हुआ था. रघुवंश बाबू ने दुनिया से जाने से पहले अपनी पार्टी को अपने हाथों से चिट्ठी लिखकर अलविदा कह दिया था, वो भी 32 साल की दोस्ती सिर्फ 38 शब्दों में. रघुवंश ने लालू को एक छोटी सी चिट्ठी लिखी- 32 साल आपकी पीठ के पीछे रहा, लेकिन अब नहीं. हालांकि लालू यादव ने भी मनाने के लिए हाथ से ही चिट्ठी लिखी और कहा- बैठकर बात करेंगे. आप कहीं नहीं जा रहे.” लेकिन अब रघुवंश बाबू जा चुके हैं. दूसरी पार्टी में नहीं बल्कि दूसरी दुनिया में.रघुवंश बाबू की राजनीति की कहानी किसी पारिवारिक विरासत वाली नहीं है, बल्कि जेल जाने से लेकर नौकरी गंवाने वाली है. 1974 में जब देश में छात्र आंदोलन एक नई कहानी गढ़ रहा था, तब बिहार के सीतामढ़ी में गोयनका कॉलेज के छात्र नहीं बल्कि एक शिक्षक छात्र राजनीति का हीरो बन रहा था. रघुवंश प्रसाद लालू यादव की सरकार में मंत्री बने. दोनों की दोस्ती ऐसी थी कि राजनीति में बहुत से लोगों ने दल और दिल दोनों बदला लेकिन पिछड़े की राजनीति करने वाले लालू और अगड़े समाज से आने वाले रघुवंश कभी अलग नहीं हुए. घोटालों के आरोपों से घिरी आरजेडी या कहें लालू यादव की पार्टी में रघुवंश ऐसे नेता थे, जिन्हें बेदाग माना जाता है. जब लालू जेल गए तब भी रघुवंश प्रसाद उनके साथ खड़े रहे, यहां तक की कोर्ट के फैसले पर सवाल उठाया.1996 के लोकसभा चुनाव में लालू यादव के कहने पर रघुवंश प्रसाद सिंह लोकसभा चुनाव लड़ने को राजी हो गए. फिर देवेगौड़ा सरकार में रघुवंश राज्य मंत्री बनाए गए. पशु पालन और डेयरी की जिम्मेदारी. फिर इंद्र कुमार गुजराल की सरकार में रघुवंश प्रसाद सिंह को खाद्य और उपभोक्ता मंत्रालय. 27 फरवरी 2015 को लोकसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मनरेगा का मखौल उड़ाते हुए कहा था, ‘मेरी राजनीतिक सूझ बूझ कहती है कि मनरेगा को कभी बंद मत करो. मैं ऐसी गलती नहीं कर सकता हूं. क्योंकि मनरेगा आपकी विफलताओं का जीता जागता स्मारक है. आजादी के 60 साल के बाद आपको लोगों को गड्ढे खोदने के लिए भेजना पड़ा.ये आपकी विफलताओं का स्मारक है और मैं गाजे-बाजे के साथ इस स्मारक का ढोल पीटता रहूंगा.’ जब प्रधानमंत्री मोदी ने ये कहा तो संसद में उनके साथी हंस-हंसकर ताली पीट रहे थे. लेकिन शायद उन लोगों ने उस वक्त ये सोचा ही नहीं कि रघुवंश प्रसाद की सोच वाली मनरेगा कुछ साल बाद मोदी सरकार के लिए संजीवनी बूटी का काम करेगी. सरकार को मनरेगा का बजट बढ़ाना पड़ा. यही नहीं कोरोना की वजह से हुए लॉकडाउन में इसी मनरेगा के सहारे बेरोजगारी की परेशानियों का हल ढूंढ रहे हैं.

दरअसल, 2004 के लोकसभा चुनाव में यूपीए की सरकार बनी तो 22 सीटें जीतने वाली राष्ट्रीय जनता दल के हिस्से में दो कैबिनेट मंत्रालय मिले. एक रेल मंत्रालय जिसे लालू प्रसाद यादव ने संभाला और दूसरा ग्रामीण विकास मंत्रालय जिसका जिम्मा रघुवंश प्रसाद सिंह को मिला. भले ही कांग्रेस पार्टी मनरेगा के लिए खुद की पीठ थपथपाए लेकिन रघुवंश प्रसाद सिंह ने इस कानून को बनवाने से लेकर पास करवाने में अहम योगदान दिया. एक ऐसी योजना जो देश की बड़ी आबादी को रोजगार की गारंटी दे सके.

साल 2014 लोकसभा चुनाव में रघुवंश प्रसाद सिंह वैशाली से चुनाव हार गए. मोदी लहर में राम विलास पासवान की एलजेपी से रमा सिंह ने उन्हें चुनाव हराया था. 2019 में भी रघुवंश प्रसाद को हार का सामना करना पड़ा. लेकिन रघुवंश बाबू की नाराजगी तब शुरू हुई जब लालू यादव के सबसे करीबी नेता को हराने वाले रमा सिंह को ही पार्टी में एंट्री देने की चर्चा शुरू हो गई. जिसके बाद से ही रघुवंश प्रसाद नाराज चल रहे थे. इस साल की शुरुआत में रघुवंश ने लालू को चिट्ठी लिखकर पार्टी की कार्यशैली पर नाराजगी जताई थी. वो पार्टी में लोकतंत्र की मांग कर रहे थे. जून में उन्होंने पार्टी उपाध्यक्ष पद से भी इस्तीफा दिया था. लेकिन अपने निधन से ठीक 3 दिन पहले 10 सितंबर को उनकी नाराजगी उनके इस्तीफे के तौर पर सामने आई.

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