आदमी की अपनी पसंद

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एक आदमी जीवन के हर क्षेत्र में परेशान था ।
दफ्तर में उसके साथी को प्रोन्नति मिलती, तो वह आहत हो उठा । पडोसी के बच्चे उसके बच्चे से अधिक सफल होते, तो वह जल भून कर राख हो जाता ।
बहुत अच्छा करने वाले दूसरो के बच्चों का तो वह कुछ बिगाड़ नहीं सकता था ।
वह अपने उन रिश्तेदारो से चिढ़ता था जो उससे अधिक संपन्न थे । वह अपनी पत्नी से भी नाखुस रहा करता था ; वह खूब हँसमुख और स्वस्थ -सुन्दर स्त्री थी, जब की वह स्वयं मामूली सकल- सूरत का, आये दिन डायरिया से परेशान रहने वाला उदास व्यक्ति था।
उसने अपनी कुढ़न से उबरने के लिए भगवान से वरदान मांगने की ठानी और तपस्या करने बैठ गया । भगवान उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर प्रकट हुए
‘ वत्स! मैंने तुम्हारी तकलीफ समझ ली है । में तुम्हे ऐसा वर दूंगा कि तुम्हारे मन का सारा कलेश मिट जायेगा ।’
वह गदगद हो उठा ।
मिलने वाले वरदान को बटोरने के लिए उठ कर खड़ा हो गया ।
लेकिन भगवान ने कुछ ठोस चीज देने के बदले अपनी सुस्पष्ट वाणी में कहा — ‘ आज से तुम्हारे मन को ईर्ष्या छु भी नहीं जायेगी ‘
वह आदमी हत्वाक रह गया ।
उसे लगा भगवान ने उसे बुरी तरह ठग लिया ।
उसके मुख पर उभरा असंतोष देख कर भगवान चिंतित हो गये ।
‘ क्या वत्स ! तुम्हे प्रस्सन्ता नहीं हुई ?’
वह अत्यंत कातर स्वर में बोला —- ‘ भगवान! मैं अपने साथ सूची लाया हूँ ,दिला देते तो बड़ी कृपा होती ।’

उसने जेब से लंबी फेहरिस्त निकाल कर भगवान को थमा दी । उसमे उसने अपने समस्त लोगों से अपने को आगे रखने की सविस्तार मांग की थी ।
अब भगवान के हतवाक होने की बारी थी ।

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