एक मुनि की तपस्या के फलस्वरूप इतना पुण्य संचित हो गया था कि स्वर्ग का स्वर्ण-रथ उन्हें ले जाने के लिए आ पहुंच। देवदूत ने उन्हें नमस्कार कर अपने आने का प्रयोजन बताया और कहा कि यह रथ आपके आदेशों की प्रतीक्षा करेगा। मुनि ने देवदूत से स्वर्ग के विषय में बताने को कहा।
उसने अत्यंत उत्साह के साथ स्वर्ग का वर्णन शुरू किया; वहां की शुचिता, सुंदरता, सम्पन्नता आदि का विवरण सुनते ही बनता था। दुःख और अभावों से मुक्त जीवन का विषद वर्णन करते देवदूत थक नहीं रहा था। लेकिन लगा जैसे यह सब सुनते-सुनते मुनि ऊब गे हों; वे अचानक पूछ बैठे – “अच्छा भाई! अब यह बताओ कि वहां करना क्या होता है?” ” वहाँ? कुछ नहीं। मुनिवर! स्वर्ग तो आराम की जगह है; कम तो आपने बहुत किये। अब विश्राम का समय आया है। आमोद–प्रमोद से भरे स्वर्ग में बड़े सुख से समय बीतता है।”
” सो तो है बंधु! पर, मैं स्वर्ग का अधिकारी क्यों मन गया, यह जानते हो?”
” क्यों नहीं? आपके उत्तम कर्मों के सुफल ने आपको इस योग्य बनाया।”
” एक बात और बताना–यह योग्यता कब तक बानी रहेगी?”
“वह तो, मुनिवर! आपके कर्मों की पूंजी पर निर्भर करेगा। वहां अपने कर्मों का फल ही भोगा जाता है।”
“कर्मों की पूंजी चुक जाने पर?”
” तब स्वर्ग की अवधि समाप्त हो जाती है; लौटना पड़ता है।”
“देवदूत! मेरी ओर से उन सब को धन्यवाद जता देना जिन्होंने मुझे स्वर्ग के योग्य समझा। लेकिन उन्हें यह भी बता देना कि मैं ऐसी जगह नहीं जाना चाहूंगा जहाँ कर्म के द्वारा जीवन के उत्कर्ष का प्रावधान नहीं हो। स्वर्ग का निठल्लापन मुझे रास नहीं आयेगा। मेरे कारण आप सबको जो कष्ट हुआ उसके लिए क्षमा करेंगे।”
मुनि आश्रम की गाय के लिए घास लेने चले गए।
अस्वीकृत स्वर्ग
