एक दरिद्र ब्राह्मण थे। उन्होंने अपनी एकमात्र पुत्र का विवाह एक धनवान व्यक्ति के घर कर दिया। उनकी पत्नी प्रत्येक नवरात्र में यथाशक्ति भोग आदि लगाकर माँ का पूजा किया करती थीं। एक बार वे पूजा से पूर्व ही वे बीमार हो गईं। ब्राह्मण चिंतित हुए कि अब पूजा की तयारी कैसे होगी? उन्होंने अपनी विवाहिता लड़की को ससुराल से घर लाकर उसे यह जिम्मेदारी देने की सोची। वे उसे लेने गए तो उनके समधी ने उनकी पुत्री को भेजने से मना कर दिया। ब्राह्मण दुखी मन से घर लौटने लगे। मार्ग में ब्राह्मण ने देखा कि उनकी पुत्री अपना सामान लेकर खड़ी है। ब्राह्मण ने पूछा -“तुम्हे तो तुम्हारे ससुर ने आने से मना कर दिया था।” पुत्री बोली -“आप चिंता न करें पिताजी! उन्हें समझाकर आई हूँ।”
उनकी पुत्री उनके साथ घर लौट आई और पूजा की तैयारी में उनकी पूर्ण सहायता करती रही और फिर अपने ससुराल लौटने का कहकर चली गयी । उसके जाने के कुछ समय बाद ब्राह्मण ने देखा कि उनके समधी, उनकी पुत्री को लेकर घर आये है । वे बोले — ” कल रात में स्वपन में दुर्गा माँ के दर्शन हुए थे । मुझे मेरी गलती का एहसास उन्होंने कराया तो आपकी पुत्री को साथ लेकर आया हूँ ।” ब्राह्मण बोले —” मेरी पुत्री तो नौ दिन से मेरे साथ ही थी ।” वह सुनकर उनकी पुत्री बोली —-” नहीं पिताजी ! मै तो ससुराल में ही थी ।” अब ब्राह्मण और उनके समधी को भान हुआ की स्वयं दुर्गा माँ ब्राह्मण की पुत्री बनकर नौ दिन से उनकी सहायता कर रही थी । भगवदकृपा को अनुभव कर अभिभूत हुए बिना नहीं रह सके ।
भगवद् कृपा का अनुभव
