अपना आधार खो रही है सीपीआईएम

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हाल ही मे सीपीआईएम के गढ़ माने जाने वाले पश्चिम बंगाल मे हुए पंचायत चुनावो मे सीपीआईएम तीसरी स्थान पर रही और इसीके साथ बंगाल मे उसका स्थान मुख्या विपक्षी पार्टी के रूप मे भी चला गया | हाल ही मे हुए त्रिपुरा चुनाव मे भी मानिक सरकार की हार सीपीआईएम के लिए बेहद निराशाजनक रही | 2011 पश्चिम बंगाल चुनावो मे हार के पश्चात ही सीपीआईएम के लिए पतन का मार्ग शुरू हुआ | सीपीआईएम के लिए सबसे बड़ी कमजोरी उनके पास नेतुत्व का अभाव होना है ज्योति बासु के बाद कुछ हद तक बुद्धदेव भट्टाचार्य ने नेतुत्व की कमी को सम्हाला था  पर बुद्धदेव भट्टाचार्य की बढ़ती उम्र ने सीपीआईएम को एक बार फिर नेतृत्वहीन कर दिया | सीपीआईएम के पास आज जमीनी स्तर से जुड़े हुए नेताओं की काफी कमी है |  सीपीआईएम का मूल समर्थक ज्योति बासु ,बुद्धदेव भट्टाचार्य ,सुभास चक्रवर्ती के जमाने की बिग्रेड की वो भीड़ देखने के लिए तरसता है | जैसे राष्‍ट्रीय राजनीती मे कांग्रेस अपना आधार ढूढ रही है सीपीआईएम बंगाल की राजनीती मे उसी समस्या मे फसी है | सीपीआईएम के कैडर आज निराश होकर या तो अन्य पार्टी से जुड़ रहे है या राजनीती से तौबा कर रहे है | सूर्यकान्त मिश्र पश्चिम बंगाल मे सीपीआईएम के नाम को जिन्दा रख पाते है की नहीं ये तो आने वाला समय ही बतायेगा |

प्रशन यहाँ यही आता है की सीपीआईएम नेतृत्वहीन कैसे हो गयी है जबकि उसके पास सीताराम येचुरी , प्रकाश करात ,वृंदा करात जैसे बड़े नाम है  इन तीनो नामों को  भारत के बुद्धिजीवियों मे शुमार किया जाता है  | सीपीआईएम के इन  बड़े नेताओं की कमी यही है की इनकी जमीनी स्तर पे कोई राजनैतिक पैठ  नहीं है | ये  राष्‍ट्रीय मीडिया मे अक्सर आने वाले नाम है पर जहा सीपीआईएम का गढ़ था उस जगह की जनता से इनका कोई सरोकार नहीं रह गया है | अब सीपीआईएम के लिए ये तय करने का समय आ गया है की उन्हें राष्‍ट्रीय मीडिया मे छाये हुए नेता चहिए न की जनप्रतिनिधि |

मिट्टी के शेर से मोह भंग हो जाना बहुत जरुरी है नहीं तो भविष्य मे अगर इसी विचारधारा से ये पार्टी चली तो इतिहास मे पढ़ाया जायेगा की भारत मे सीपीआईएम नाम की एक पार्टी हुआ करती थी |

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