देवमूर्ति की परिक्रमा क्यों की जाती है और इसका क्या महत्व है?

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प्राण प्रतिष्ठित देव मूर्ति जिस स्थान पर स्थापित होती है, उस स्थान के मध्य बिंदु से चारों ओर कुछ दूरी तक दिव्य शक्ति का आभामंडल रहता है। उस आभामंडल में उसकी आभा-शक्ति के सापेक्ष परिक्रमा करने से श्रद्धालु भक्त को सहज ही आध्यात्मिक सटी मिल जाती है।
दैवीय शक्ति के आभामंडल की गति दक्षिणवर्ति होती है। इसी कारण दैवीय शक्ति का तेज और बाल प्राप्त करने के लिये भक्त को दायें हाथ की ओर परिक्रमा करनी चाहिए। इसके विपरीत यानी बाएं हाथ की ओर देव प्रतिमा की परिक्रमा करने से दैवीय शक्ति के आभामंडल की गति और हमारे अंदर की आंतरिक शक्ति के बीच टकराव होने लगता है। इसका परिणाम यह होता है कि हमारा अपना जो तेज है, वह भी नष्ट होने लगता है। अतएव कभी भी देव प्रतिमा की विपरीत परिक्रमा नहीं करनी चाहिए।
किसी भी देवी- देवता की परिक्रमा करते समय श्रद्धालु भक्तो को परिक्रमा के दौरान उस देवी – देवता के मंत्र का मन ही मन जप करते रहने चाहिए । परिक्रमा के दौरान धक्का – मुक्की करना , बातचीत करना , खाना पीना या हसना पूर्णतया वर्जित है। देवी – देवताओ को प्रिय तुलसी, रुद्राक्ष अथवा कमलगट्टे की माला धारण करना फलदायक होता है । परिक्रमा पूरी हो जाने के पश्चात देवमूर्ति को साष्टांग प्रणाम करना चाहिये और फिर श्रद्धापूर्वक आशीर्वाद के लिए प्रार्थना करनी चाहिए ।
भगवन श्रीहरि की प्रतिमा की परिक्रमा करने के सम्बन्ध में पदमपुराण में इस प्रकार कहा गया है कि ‘ जो भक्त पूर्ण श्रद्धा और भक्ति से भगवन श्रीहरि की धीरे- धीरे पग उठाकर परिक्रमा करता है, वह एक- एक पग के चलने में एक-एक अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त करता है । श्रद्धालु भक्त जितने पग परिक्रमा करते हुए चलता है , वह उतने सहस्त्र कल्पो तक भगवान श्रीहरि के धाम में उनके साथ ही प्रस्सन्तापूर्वक निवास करता है |

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