दो पैरों के निशान

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भगवन ने बड़े मनोयोग से संसार को रचा। उन्होंने मानव को यह मनोहर दुनिया दिखाते हुए कहा कि अब वह वहां जाकर रहे। भगवान के पार्श्व में खड़े आदमी ने झांक कर दुनिया देखी। उसे यह नगरी दूर से तो अच्छी दिखाई पड़ी , लेकिन मन में एक शंका भी हुई, सो उसने अपनी सहमति देने से पहले स्थिति स्पष्ट कर लेनी चाही।
“वहां मुझे अकेले जाना पड़ेगा?”
“तुम्हारे साथी होंगे, पूरा सामाज होगा।”
“मेरा मतलब उनसे नहीं है; आप होंगे या नहीं?”
“मैं? मैं तो यहाँ……”
” नहीं-नहीं! मुझे नहीं जाना कहीं; चाहे कितनी भी सुन्दर जगह क्यों न हो?”
“अरे, ऐसा नहीं कराटे! मैं यहीं से देखता रहूँगा तुम्हें।”
“मैं आपके बिना नहीं रह पाऊंगा। आप मेरे साथ चलिए, तभी मैं वहां रहूँगा; ऐसे नहीं।”
“ठीक है, मेरी एक शर्त है।”
“बहुत कठिन शर्त मत लगाइएगा।”
“नहीं, बिल्कुल कठिन नहीं है। मेरी शर्त है कि मैं रहूँगा तो तुम्हारे साथ-साथ ही, लेकिन तुंहें दिखाई नहीं पडूंगा।”
“तुम बीच-बीच में पीछे मुड़कर देख लिया करना–तुम्हें पैरों के निशान दिखाई पड़ेंगे; दो तुम्हारे और दो मेरे।” भगवान की इस बात पर आदमी आश्वस्त हुआ।
वह दुनिया में रहने आ गया। अक्सर दुनिया के कार्य-व्यापार कोअपने निजी और स्थाई उत्तदायित्व मानकर इतना खो जाता था कि पैरों के निशान देखने की यद् नहीं रहती थी।
दुनिया के सुख बटोरने का नशा भी उसे उलझाने लगा था। लेकिन इसी बीच वह विपत्तियों से घिर गया तो भगवान की याद आई और उसने पीछे मुड़कर देखा; दो ही पैरों के निशान थे।
हाय! आप कहाँ हो? मुझे क्यों छोड़ दिया?–उसे मूर्च्छा आ गयी।
जब होश में आया तो भगवान की उपस्थिति अनुभव कर रूठा सा बोला-” आप कहाँ चले गए थे?”
“तुम्हारे पास ही तो था!”
“देखिये! मुझे बहलाये मत। मैंने होश खोने के पहले देख लिया था; दो ही पैरों के निशान थे।”
“हाँ, निशान तो दो ही होंगे, क्योंकि तुम मेरी बाँहों में थे। मैंने तुम्हें गिरने के पहले उठा जो लिया था।

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