दृष्टिकोण

महर्षि नारद को बैकुंठ से लेकर सभी लोकों में भ्रमण करने की सुविधा प्राप्त थी। ऐसी ही एक यात्रा के दौरान वे पृथ्वी पर किसी महाज्ञानी से मिले। वह ज्ञान के गवाक्ष से ईश्वर की सत्ता का आभास पा चूका था और उसका आकलन था कि अब वह परम धाम तक पहुंचने के मार्ग में अग्रसर है।
उसने नारद जी से अनुरोध किया कि वे उसे पता लगा कर बताएं कि उसे अब और कितना समय लगेगा।
महर्षि एक और व्यक्ति से मिले। वह परम भक्त था; एक विष्णु भक्त को पाकर अभिभूत हो उठा।
उनके चरण पखारे और उनका वाद्य यन्त्र डुलाते हुए पूछा-“महाराज! मुझे भगवन का सान्निध्य प्राप्त होगा?
“क्यों नहीं?”
“कितना और समय लगेगा?”
“पता लगा कर बताऊंगा।”
कुछ दिन बाद फिर नारद मुनि फिर आये। ज्ञानी का घर पहले पड़ता था। वहां जा कर उसे बताया-“भाई! अब अधिक देर नहीं है; सिर्फ चार जन्म! और उसके बाद, आप भगवन के लोक में मौजूद होंगे।
“चार जन्म! इतना विलम्ब क्यों मुनिवर? मैं तो कुछ और जल्दी आस लगाये बैठा था।”
वह अपनी उपलब्धियों का हिसाब जोड़ने लगा।
नारद जी को भक्त के पास भी जाना था, इसलिए रुके नहीं। भक्त उन्हें देख कर इतना गदगद था कि उसे अपने लिए पूछने की भी सुध नहीं रही।
महर्षि ने खुद ही बात चलाई।
“तुम्हे चार जन्मों के बाद ही विष्णुलोक प्राप्त हो जायेगा।”
यह सुनते ही उसकी आखों से आनंदाश्रु बाह चले। वह नारद जी के चरणों में गिर कर भगवन का गुण-कीर्तन करने लगा।
“धन्य मेरे भाग्य! मैंने तो ऐसा कुछ नहीं किया कि प्रभु मुझे अपने निकट खीच रहे हैं! सब उन्हीं की कृपा का फल है। वे अधमों पर भी दया करते हैं।”
कृतज्ञता से भर कर, वह रोमांचित होता रहा।

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