आधुनिक समय में मनुष्य के लिए बाज़ार जरूरी है। उसके जरूरत की वस्तुएं वहाँ मिलती हैं। लेकिन बाज़ार अब महज वस्तु विनिमय का केंद्र ही नहीं, एक विचारधारा भी है। जिसे पढ़े-लिखे समाज में इसे बाजारवाद नाम दिया गया है। बाजारवाद यानी बाज़ार का प्रचंड प्रकोप, बाज़ार का दुष्प्रभाव। जिसका मूल काम मनुष्य को ग्राहक से उपभोक्ता में बदलना है। उसके भीतर वस्तुओं के प्रति लालच पैदा करना है। वस्तुओं के साथ मनुष्य के स्टेटस को जोड़ना है। बाज़ार विज्ञापन के जरिए लोगों के मन में वस्तुओं के प्रति माया रचता है, जिसमें मनुष्य फँसता चला जाता है। पहले ग्राहक अपनी जरूरत और विवेक के साथ बाज़ार जाता था। अभी बाज़ार में पहुँचते ही अधिकांश लोगों के विवेक का हरण होता है। वह अपनी जरूरत की जगह या उसके साथ कम जरूरी वस्तुएं भी खरीदता है। जिससे वह आर्थिक दबाव में चला जाता है। उसके बाद तनाव में भी। पहले बाज़ार मनुष्य का सहयोगी था, किन्तु आज बाजारवाद मनुष्यता का दुश्मन। बाजारवाद से मानवतावाद को खतरा है।
मानवतावाद से यहां मतलब मानवता को स्थापित करने की विचार प्रणाली से है। बाजारवाद का मतलब बाजार की सत्ता कायम रखने के लिए किए जा रहे सुचिंतित साजिश से है। आज बाजारवाद के साथ पूंजी का मधुर संबंध है । यह एक सत्ता है, जैसे राजसत्ता, पूंजी की सत्ता। यह भी तमाम सत्ताओं की तरह मनुष्य को अपना गुलाम बनाना चाहती है। सत्ता का प्रतिरोध भी मनुष्य का आदिम स्वभाव है। आज बाज़ार के बढ़ते बुरे प्रभाव का विरोध भी जरूरी है।
समाज पर पड़ रहे बाज़ार के नकारात्मक प्रभाव से लड़ने में साहित्य हमारी मदद कर सकता है। क्योंकि साहित्य का स्वभाव भी हमेशा से ही सत्ता के विरोध का रहा है। बाजारवादी व्यवस्था को कायम रखने के लिए जैसे पूंजी और उच्च तकनीक उसके सहायक बने हैं, वैसे ही मानवतावाद की प्रतिष्ठा के लिए साहित्य और संस्कृति को अपने प्रतिरोधी धर्म का निर्वाह करना पड़ेगा । एक तरफ पूंजी और तकनीक बाजार के साथ मिलकर मानवीयता को कमजोर कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ साहित्यकार और कलाकार अपने दायित्व से मुंह मोड़ लेंगे तो मनुष्यता कमजोर होगी ही । आज अधिकतर साहित्यकार और कलाकार बाजार और पूंजी के ताकत के आगे करबद्ध खड़े हैं। जरूरत है रामायण के जामवंत की, जो हनुमान जैसे साहित्यकारों को उनका बल और दायित्व बताए। वह जामवंत हमारे इतिहासबोध और साहित्यबोध हो सकते हैं।
साहित्य एक तरफ जहां हमें मानवतावाद में आस्था को बचाए-बनाए रखने का साहस भरता है, वहीं दूसरी तरफ बाजारवाद जैसी मानवीयता विरोधी शक्तियों से लड़ने का औज़ार भी मुहैया करता है । आज बाजार जिस तरह के जीवन शैली को हमारे लिए परोस रहा है, उससे हम भौतिक विलास का मजा तो ले पा रहे हैं, लेकिन हमें शांति और आनंद की प्राप्ति नहीं हो रही है। वह हमारे भीतर लोभ और भोग की प्रवृत्ति को उत्प्रेरक की तरह दिन-प्रतिदिन बढ़ा रहा है। यह हमें मस्ती और उत्तेजना की सामग्री तो हमारे सम्मुख परोस रहा है, लेकिन हमारे आत्मिक विकास और मनुष्यता को बचाए रखने के संसाधन उपलब्ध नहीं करा रहा है। वह करा भी नहीं सकता । हमें बबूल के पेड़ से फल की आशा भी नहीं रखनी चाहिए। बाजार और तकनीक हमारे लिए भौतिक सुख के बहुत सारे संसाधन तो मुहैया करा सकते हैं, लेकिन हमारे भीतर सौंदर्य और नैतिकता के गुण नहीं भर सकते। इसके लिए हमें साहित्य और कला के पास ही जाना होगा । हमें मजा के फिराक में रहने की जगह आनंद की तलाश में निकलना होगा। बाज़ार हमें भौतिक मजा तो दे सकता है, लेकिन आध्यात्मिक आनंद नहीं। बाज़ार हमें सेलफिश बना सकता है, सेल्फ(आत्म) को खोजने में हमारी मदद नहीं कर सकता। आत्म को खोजने में साहित्य ही हमारी मदद करेगा, बाज़ार नहीं। आज बाज़ार हमारे घर में घुस रहा है। अब हम बाज़ार नहीं हैं, बाज़ार हममें है। मेरे कवि मित्र कुमार संकल्प ने लिखा है-
बाज़ार से आहत हो कई बार सोचा
घर को लौटूँ,
जब लौट कर देखा तो घर बाज़ार हो चुका था।
इधर भी बाज़ार उधर भी बाज़ार!
बाज़ार से बाज़ार तक चलते-चलते मैं
बिकाऊ हो गया।