जाकी रही भावना जैसी

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एक पेड़ के नीचे कोई वृद्ध व्यक्ति पड़ा था। बढ़ी हुई दाढ़ी, कपड़े बेतरतीब; पता नहीं वो सोया था या बेहोश होकर गिर पड़ा था। वहीँ एक शराबी आया; बूढ़े पर नजर पड़ी तो बोल उठा-” अरे बुढ़ऊ, इस उम्र में नहीं सधती तो क्यों चढ़ा लेते हो? मुझे देखो! रात भर पीता रहा हूँ, लेकिन मजाल कि कहीं लुढ़कू!” -वह बूढ़े को अपने से कमतर शराबी मन रहा था।
फिर कुछ जेबकतरे आये। बदहाल पड़े बूढ़े को देखा तो एक दूसरे से बतियाने लगे-“लगता है बूढ़े को भरपूर मार लगी है। हाथ की सफाई के लिए भी तो जवान होना जरुरी है। अब नहीं काट सकता पॉकेट तो बेकार गया मार खाने।”
दो किसान सुस्ताने के लिए वहीँ आ बैठे तो बूढ़े को देख कर उदास हो गए। एक ने लंबी साँस लेकर कहा-“लगता है इसे मालिक ने बैल की जगह जोत दिया है। मेरे साथ भी ऐसा हुआ था तो, दो दिन नहीं उठ सका; इसी तरह जहाँ-तहाँ लुढक जाता था।”
” हम लोगों का जीवन ही ऐसा है।”–सहानुभूति से दूसरा बोला।
थोड़ी देर बाद एक युवक किसी को ढूंढता हुआ आया। जैसे ही उसकी नजर वृद्ध पर पड़ी, वह पैरों से लिपट गया-“गुरुदेव! आप यहाँ हैं? और मैं कबसे आपके लिए भटकता फिर रहा हूँ। ओह! क्या हालात हो गई है! उठिए स्वामी! आँखें खोलिए। मैं हूँ आपका दस।” –लंबे व्रत-उपवास के बाद मूर्च्छित गुरु को शिष्य ने जल पिला कर चलने लायक बनाया और सहारा देकर गुरुकुल ले गया।

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