कोई भक्त टोकरी भर फल लाया था। नियम के अनुसार उसने फलों को धोया, निर्धारित स्थान पर उन्हें रख आया टोकरी को पेड़ के नीचे फेंक दिया जहाँ परिसर बुहारने वाली झाड़ू थी।
“कूड़ा उठाने के लिए आई हो?” -झाड़ू ने पूछा।
“पता नहीं।” -उदास टोकरी बोली।
“उसने खरीदते समय कुछ कहा तो होगा!”
“दरअसल, उसने मुझे ख़रीदा नहीं है; फल वाले ने फलों को सहेज कर ले जानेके लिए उसे दिया था।”
“अच्छा! तुम प्रसाद का फल ले हो? माफ़ करना, मैंने भूल से तुम्हे कूड़े की टोकरी समझ लिया था। बुरा मत मानना।”
“नहीं बहन! मैंने तो उस आदमी के व्यवहार का भी बुरा नहीं माना जो अपना कम निकालने के लिए मुझे कंधे पर उठा कर लाया और काम निकलते ही फेक दिया।”
पूजा-अर्चना के बाद एक देवमूर्ति ने दूसरी से कहा-‘आज का प्रसाद तो बहुत बेस्वाद है!’
“हाँ, फलों का सारा रस तो उस टोकरी में चला गया जिसे निरादर से फेंक दिया गया है।”
“हाँ, अपने साथी को अपमानित होते देख फलों का जी भी खट्टा हो गया है”
“आदमी इनके आपसी संबंधों को नहीं देख पता।”
“वह इन्हें एक बेजान वस्तु भर मानता है।”
“और आदमी की संवेदना भी इनकी तरह शुद्ध नहीं होती।”
“लेकिन सभी लोग तो उसी आदमी की तरह नहीं होते; वह, वहां देखो।”……
मंदिर के खुले हुए पट से देव प्रतिमाओं ने देखा–एक वृद्धा ने आकर बड़े प्रेम से वह टोकरी उठाई और उसे धो कर साफ कर दिया। मन ही मन उसके स्वरुप को सराहते हुए वे सावधानी से उसे वहां रख आईं जहाँ पूजा के बरतन धोने के बाद सूखने के लिए रखे हुए थे।
वृद्धा के हाथों को चूम कर टोकरी मुस्कराई और पूरी निष्ठां के साथ मंदिर की सेवा में जुट गई।