घर हो या बहार, हर जगह उसके लेख सराहे जाते थे। इसलिए जब स्कूल में आयोजित लेख प्रतियोगिता में उसका लेख सबसे अच्छा माना गया तो किसी को कोई आश्चर्य नहीं हुआ। उसने इस लेख के लिए परिश्रम भी खूब किया था। अपने माता-पिता से पूछ-पूछ कर सूचनाएं इकट्ठी कीं, बड़े भाई से कई आंकड़े लिए।
उसकी मेहनत रंग ले आई। उसे स्कूल की ओर से एक प्रमाण पत्र भी मिला। दूसरे दिन, क्लास में भी वर्ग शिक्षिका ने उसके लेख की तारीफ की और दूसरी लड़कियों से कहा कि वे सब भी इसी तरह लिखने की कोशिश करें।
उन्होंने उस लड़की से कहा कि वह अपने लेख की एक प्रति उन्हें दे दे, वे दूसरे बच्चों को दिखाएंगी।
लड़की को बहुत अच्छा लगा; उसने तुरंत उन्हें लेख की एक साफ प्रति दे दी।
वह लड़की उस स्कूल की पढाई पूरी कर कहीं और ऊँची पढाई कर रही थी। एक दिन पड़ोस की एक छोटी लड़की जो इससे हिली-मिली थी, उसके घर आई। वह बड़े उत्साह में थी।
” दीदी, आज हमारी क्लास-टीचर ने एक लेख लिखाया। इतना अच्छा है कि क्या बताऊँ ! वह बता रही थी इसे उन्होंने अपने स्कूल के दिनों में लिखा था । इस पर उन्हें पुरस्कार भी मिला था । मै आपको दिखाने ले आई हूँ उनका यह लेख तो कमाल का है ! ‘ वह लेख देखकर अवाक् रह गयी इसलिए नहीं कि वह कमाल का था, बल्कि इसलिए कि यह उसका वही लेख था !
‘ है न दीदी ! है न बहुत अच्छा ! ‘
उसे ध्यान से डूबी देखकर लड़की ने टोका ।
‘ हाँ … बहुत अच्छा है ।’
उसने और कुछ नही कहा ।
ऐसा नही कि अपनी उस पुरानी शिक्षिका के प्रति उसके मन में आक्रोश नही उभरा था, लेकिन उसने उन्हें माफ़ी दे दी ।
वह नही चाहती थी शिक्षिका का ओछापन जान कर यह भोली-भाली लड़की दूसरे बड़ो के आचरण को भी शंका की दृष्टि से देखने लगे ।