आचार्य द्रोण राजकुमारों को पढ़ा रहे थे; आज का विषय था ‘क्रोध पर विजय’। सबको पाठ याद करके आना था। दूसरे दिन युधिष्ठिर को छोड़ बाकी सभी ने मुखस्थ पाठ दुहरा कर गुरु को प्रसन्न कर दिया।
‘ तुम क्यों नहीं कर पाये? अच्छा, कल कर लाना।’
लेकिन दूसरे दिन भी वही हाल। गुरु ने युवराज को एक दिन और समय दिया। पर उस दिन भी जब युधिष्टिर ने पूरी तरह याद नहीं होने की बात कही तो द्रोणाचार्य कुपित हो उठे। उन्होंने बालक युधिष्टिर को मारा। पीठ पर गुरु की खड़ाऊं का स्पर्श होते ही उनके मुख पर संतोष की आभा फ़ैल गयी और वह आन्नद से भर कर बोल उठे-‘गुरुदेव! मुझे पाठ याद हो गया।’
अन्य कुमार मुस्कराने लगे, लेकिन आचार्य ने बालक की बात को गंभीरता से लेते हुए पूछा-‘जिस पाठ को तुम दो दिनों में याद नहीं कर पाये थे, वह इस पल अचानक कैसे याद हो गया?’
‘आचार्यश्री! आपने जब मुझे मारने के लिए हाथ उठाया, मारा और मेरे मन में आपके प्रति तनिक भी क्रोध नहीं आया , तो मैंने समझ लिया कि पाठ आत्मसात हो गया है।’
गुरु ने अपने उस सुयोग्य शिष्य को गले लगा कर अनेक आशीर्वाद दिए। उन्हें इसके यशस्वी भविष्य का आभास हो गया था।
असली पाठ
