एक परिवार साधु-संन्यासियों के प्रति अत्यंत श्रद्धावान था। नगर में कोई महात्मा आये हों, तो उस परिवार के सदस्य उनकी सेवा में आस-पास मंडराते रहते थे।
यह परिवार साधु-सन्यासियों के प्रति श्रद्धा व भक्ति के लिए तो जाना जाता ही था, पूरे परिवार की सम्पन्नता और शालीनता भी सराहनीय थी। लोग उनके लड़के-लड़कियों की सफलता का श्रेय भी उनकी साधु-सेवा को ही देते थे।
बच्चों का सुयोग्य बन कर कम-काज में सफल हो जाना उस परिवार की स्वाभाविक बात थी। लोगों को लगता था की महात्माओं के आशीर्वाद से उनके बाल-बच्चे फूल-फल रहे हैं। लोग उनका उदहारण देते थे।
ऐसे में, उस घर के एक अति होनहार बेटे ने शिक्षा का शिखर छूने के बाद सब को अपने प्रस्ताव से हतप्रभ कर दिया।
उसने कहा -” मैं संन्यास लूँगा।”
उसकी उस बात से सारा परिवार शोकग्रस्त हो उठा। हाय बेटे! क्यों? तुझे कोई कष्ट है? किसी ने तेरे मन को चोट पहुंचाई है?
” नहीं। मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं है। बस। मेरी आंतरिक इच्छा ही एक मात्र कारण है।”
लड़के ने पूरी सच्चाई से अपने मन की बात कह दी।
लेकिन माता-पिता, दादा-दादी, ताऊ-चाचा, बड़े-छोटे भाई–सब लगे रहे कि किसी पर वह अपने मन की बात प्रकट करे।
सचमुच उसके मन में इसके अलावा कोई बात नहीं थी कि वह संन्यस्त जीवन को सर्वोत्तम मानने लगा था। और यह कोई अचानक उपजा अस्थायी वैराग्य भी नहीं था। पूर्वजन्म के उसके अपने संस्कार होंगे इसके साथ उसने सदा अपने परिवेश के माध्यम से यही देखा और समझा था कि सन्यासी का जीवन पवित्र और वांछनीय है।
वह अपने निर्णय पर बना रहा।
लेकिन उसे एक ही बात की आशंका थी कि उसके संन्यास को परिवार की निजी हानि मानकर, उसके कुटुम्बी कहीं प्रतिक्रिया में साधु समाज से विमुख न हो जाएँ।
सूखा सम्मान
