सुनहरी यादें

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ट्रेन मे किसी तरह चढ़ तो गया था मगर पटना से कोलकाता इस टूटे मन के साथ जाना संभव नही लग रहा था | एक तो प्रियजनों और मित्रों से बिछरने का दुःख और दूसरा शहर की मशीनी जिन्दगी मे फिर से वापसी का एक अलग अहसास | बड़ी मुश्किल से 15 दिनों की छुट्टी मिली थी अभी तो सारे बगीचे भी नहीं घूम पाया था जहा शहर मे सोचता की आधे घंटे और सो लू वही गाँव मे सुबह 5 बजे ही उठकर इधर उधर की शैर को निकल जाता | अब खासे दोस्त नहीं रह गये थे गाँव मे लगभग सारे दोस्तों को रोजगार की तलाश ने गावों से दूर कर दिया था | लगभग सारे घरों मे सिर्फ बूढ़े लोग या यु भी कह सकते है गुजरा हुआ कल अपने बच्चों के शहरों से आने के इंतज़ार मे आश लगाये हुए बैठे था | बरगद का पेड़ , गाँव का वो पोखरा , गाँव की वो पगडंडिया सबका जैसे एक ही सवाल था मुझसे कहा थे इतने दिन ? उन सवालों  का मेरे पास कोई जवाब नहीं था | गाँव भी अब वो गाँव नहीं रह गया था आधुनिकता ने उसे भी जकर लिया था | मै घंटो बैठा था बरगद के पेड़ के पास पर किसी बच्चे को गिल्ली डंडा खेलते हुए नहीं देखा | सुबह वहा भी थोरी देर से होनी चालू हो गयी है इसका कतई मतलब ये नहीं की सूर्य का उदय अपने समय पर नहीं हो रहा है लोगो की दिनचर्या मे थोड़ा बदलाव आया है  | कभी कभी लगता की  गाँव की वो सुनहरी यादें कोई सपना था वास्तविक जिन्दगी मे ऐसा कुछ था ही नहीं |

गाँव से जब को नौकरी के लिए मन बना शहर को निकले थे सोच रखा था 2 महीने बिलकुल गुजारने है गाँव मे पर कुछ महीने बीतने के बाद 500 किलोमीटर दूर स्थित गाँव मंगल ग्रह जितनी दूर लगने लगी | पहले तो सुख सुविधाओं ने जकरा फिर अंतिम कसर बैंक लोन ने पूरी कर दी | आने वाले 8 सालों तक पाबंद थे घर की क़िस्त देने को हर महीने उस घर की जहा मेरी शरीर टिकी हुई थी आत्मा तो गाँव मे ही छुट गयी थी | कभी कभी सरकार को कोसता यही कुछ रोजगार का साधन कर दिया होता कभी खुद को | काश मै  भी पापा की तरह कृषि पर ध्यान देता मगर क्या करे वे ही हमेशा बोलते अब इन कामों मे कुछ नहीं रखा पढाई करो शहर जाओ जैसे सबके बच्चे जा रहे है | इन सब उधेरबुन के बिच न जाने कब आँख लग गयी और किसी ने जोर से आवाज़ दी उतरना नहीं है क्या ट्रेन आगे नहीं जाएगी | मैंने देखा की कोलकाता स्टेशन आ चूका है और  मै कंक्रीट के जंगल मे अपनी सुनहरी यादों से निकल  फिर जाने को तैयार हो गया |

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