किसी आश्रम में एक अन्तेवासी महिला पागल हो गे थीं। वे बहुत ही भले स्वभाव की थीं। इस स्थिति में भी किसी को कोई नुकसान नहीं पहुचाती थीं। इसलिए सामान्य लोगों की तरह उनका भी निर्वाह हो रहा था।
फर्क इतना ही था कि जब सरे लोग किसी न किसी कम में लगे होते थे, तो वे एक खास जगह पर बैठ कर , अपने आप कुछ न कुछ बोलती रहती थीं। आश्रम वासियों के लिए तो यह खास बात हो गई थी, लेकिन दर्शनार्थियों का ध्यान उनकी ओर चला जाता था। नवांगतुक रुक कर उनको देखने लगते थे या पूछते थे कि वे क्या कह रही हैं? आश्रम के अन्य निवासियों को लगा कि यह ठीक नहीं हो रहा है, क्यों नहीं उन्हें दिन भर के लिए , किसी एकांत कमरे में या किसी एक कोने में बैठा दिया जाये, जहाँ पर लोगों की दृष्टि न पड़े।
आश्रम के आचार्य जी के पास लोगों ने यह सुझाव-प्रस्ताव रखा। सुन कर वे कुछ पल मौन रहे, आँखें मूंद लीं। लोगों को लगा की वे मन ही मन उस स्थान का चयन कर रहे होंगे जहाँ उस महिला को रखा जा सकता है। उन्होंने आँखें खोली और पूछा -‘वह किसी को कोई तकलीफ पहुंचाती हैं?’
‘जी नहीं। लेकिन इससे आश्रम के बारे में लोग क्या सोचेंगे…..’
‘ आश्रम की प्रतिष्ठा पर उसके कारण कोई आंच नहीं आएगी। मुझे यह बताओ कि वह जो बोलती है और आपलोग जो आपस में बोलते – बतियाते हो उसमें कोई विशेष अंतर है क्या ? ‘