महाभारत में एक रोचक और प्रेरक कथा है ।महारथी गुरु द्रोणाचार्य को मारने के लिए अर्द्धसत्य बोला जाता है । इसे बोलने के लिए सत्यवादी युधिष्ठिर को तैयार किया जाता है । उनके नहीं मानने पर कृष्ण द्वारा एक छल का सहारा लिया जाता है । महाभारत में युद्ध के समय युधिष्ठिर बोलते हैं, ‘अश्वत्थामा हतो हतः’, जो आधी बात थी , बाकी का जब वह बोलते हैं, ‘नरो वा कुंजरो’ तब तक कृष्ण जोर से शंख बजा देते हैं । गुरु द्रोण अश्वत्थामा के मारे जाने की अधूरी खबर सुनकर पुत्र शोक में अपना तीर-धनुष त्याग देते हैं । उसी समय उनका वध कर दिया जाता है । आज भी देश में विकास का आधा सच ही सुनाया जा रहा है, जिसके सामने अधिकांश लोग अपने विवेक और मनुष्यता का समर्पण कर रहे हैं । विकास के कृष्ण पक्ष को जनता के सामने प्रस्तुत ही नहीं किया जा रहा है । एक बात और कि लोकतंत्र में विकास तांत्रिकों की पहुँच में, लोक के नहीं । आज के माहौल को देखकर शासन व्यवस्था का नाम लोकतंत्र की जगह तंत्रलोक अधिक उपयुक्त लगता है।
देश के एक छोटे से हिस्से को चमकाने के लिए एक बड़े भूभाग का खाद-पानी के रूप में इस्तेमाल हो रहा है । जिस यूरेनियम से हमें परमाणु बम के निर्माण और बिजली उत्पादन में सबसे ज्यादा मदद मिल रही है, उसी के रेडियो ऐक्टिव विकिरण से जादूगोड़ा (जमशेदपुर) का जीवन नरक से भी बदतर होता चला जा रहा है । वहाँ की औरतें माँ नहीं बन पा रही हैं । उनमें बांझपन बढ़ा है । वहाँ के स्थानीय लोगों और जानवरों के अंग सड़-गल रहे हैं । पूरा देश परमाणु परीक्षण पर गौरव महसूस करता है, लेकिन जादूगोड़ा के आदिवासियों की मार्मिक पीड़ा की तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता । वहाँ के आदिवासियों की चिंता न तो सरकार को है न ही विकास के महारथियों को । मीडिया को भी इनकी जहालत और पीड़ा से कोई हमदर्दी नहीं है । श्री प्रकाश की डाक्यूमेंट्री फिल्म ‘बुद्धा वीप्स इन जादूगोड़ा’ (देखें, https://www.youtube.com/watch?v=FxO_LlHaYvs ) और महुआ माजी के उपन्यास ‘मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ’ में वहाँ के आदिवासियों की जहालत को देख सकते हैं । समाज में साहित्य और डाक्यूमेंट्री फिल्में हाशिए पर पहुंचा दी गई हैं । सस्ती लोकप्रियता के चलते साहित्य और डाक्यूमेंट्री फिल्मों की जगह टी. वी., इंटरनेट और व्यवसायिक फिल्मों का असर जनता पर अधिक है । आज यदि विकास से वंचित लोग समाज में हाशिए पर हैं ,तो उनकी आवाज को व्यक्त करने वाले माध्यम भी कहीं न कहीं हाशिए पर ढकेले जा रहे हैं । मसलन समाज में साहित्य और अच्छी चीजों के लिए जगह सिकुड़ी है ।
हमारे देश के विकासवादियों को भोपाल गैस त्राशदी के शिकार हुए लोगों की तनिक भी सुध नहीं है। इनके हक के लिए देश में कोई भी बड़ी राजनीतिक पार्टी और स्वयंसेवी संस्थाएं एक बड़ा आंदोलन क्यों नहीं करते हैं, जो उन्हें तीस साल बाद भी नहीं मिल पा रहा है । यह कैसा विकास है जिसमें मुट्ठी भर लोगों के अति-भौतिक विलास के लिए बहुजन का विनाश किया जा रहा है ? उन्हें बेघर किया जा रहा है । बांध बनने के बाद यह तो खबर आती है कि उससे कितना मेगावाट बिजली उत्पादन होगा । मीडिया इसे खबर क्यों नहीं बनाती कि बांध के निर्माण से कितने गाँव हर साल डूब रहे हैं और कितने लोग विस्थापन की मार झेल रहे हैं । उनके अस्तित्व की चिंता लोकतंत्र के मठाधीशों को क्यों नहीं सताती ? वे केवल विकास के पुजारी बने क्यों बैठे हैं ? उन्हें देश के धनकुबेरों की तो बड़ी चिंता रहती है । उनकी यह चिंता तो उस समय सारी हदें तोड़ देती हैं, जब एक खास धनकुबेर के ‘ड्रीम प्रोजेक्ट’ के लिए तमाम नियमों को ताक पर रखते हुए एक बड़े राष्ट्रीय बैंक के खजाने का द्वार खोल दिया जाता है । भारत में वह हर असंवैधानिक और जनविरोधी काम किया जा सकता है, जिनसे मठाधीशों को लाभ पहुंचता है । वह अमेरिका की प्रतिबंधित दवा कंपनियों को अपने देश में लाइसेंस देने का मामला हो, या पर्यावरण के नियमों को ठेंगे पर रखकर किसी बड़े उद्योग और किसी बड़ी परियोजना को हरी झंडी देना हो । गंगा सफाई अभियान के ठेकेदारों को गंगा की तो चिंता सता रही है, लेकिन भारत के विकसित राज्यों के लिए आदर्श माडल गुजरात में ही दुनिया की बड़ी-बड़ी जहाजों के स्क्रैप तोड़ने का ठेका उनके विश्वसनीय धनकुबेर को दिया गया है, जिससे वहाँ की तमाम छोटी नदियों पर विशाल खतरा मंडरा रहा है । वह दूषित हो रही हैं और सूखने के कगार पर हैं । यह ठेका पर्यावरण के तमाम नियमों की अनदेखी करता है ।
गांधीजी ने जगजीवन राम से बातचीत में एक बात कही थी, कि आजाद भारत में जब भी कोई नीति-निर्धारण हो तो यह ख्याल रखा जाना चाहिए कि उससे सबसे कमजोर और वंचित को कितना लाभ पहुँच रहा है । आज हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी के लिए गांधी का चश्मा, जिसमें स्वच्छता लिखा हो, भले ही काम का हो, लेकिन उनके अनमोल विचार और उनका नीति-निर्धारण के समय कोई महत्व नहीं हैं । अभी तो अधिकतर नीति-निर्धारक नीति बनाते समय यह विशेष ध्यान रखते हैं कि उससे सबसे शक्तिशाली और समृद्ध महानुभाव को अधिकतम लाभ मिल रहा है कि नहीं । धनकुबेरों का काम बनता, भाड़ में जाए गरीब जनता ।
आज विकास का मुद्दा सबसे अधिक चलन में है । जिसे देखो, वही विकास का झंडा उठाए दौड़ रहा है । हर कोई विकसित होना चाहता है । उन्हें सपनों के सौदागर सरकार और बजारवादी व्यवस्था द्वारा विकास के सुनहरे सपने भी दिखाए जा रहे हैं । बाजार में सब कुछ बिकता है के तर्ज पर सपना भी बेचा जा रहा है । यहीं पर एक प्रश्न उठता है कि विकास किन शर्तों पर और किन चीजों का विकास ? सबसे पहली चीज जो बहुत परेशान करती है, वह यह कि रोटी-कपड़ा-मकान और न्यूनतम शिक्षा-समुचित स्वास्थ्य व्यवस्था का सबकी पहुँच में होना विकास है कि नहीं ? लोगों को सबसे पहले इन चीजों की जरूरत है न कि टी.वी.-मोबाईल-इंटरनेट और माल-मल्टीप्लेक्स की । थोड़ी देर के लिए लग सकता है कि मैं विकासविरोधी हूँ, लेकिन यह पूरा सच नहीं है । आज इंटरनेट और स्मार्ट फोन के फायदे बताते बाजार और विज्ञापनों का मुंह नहीं दुखता है । हमने विकास की कई मंज़िलें पार कर ली हैं । एक जगह आज सूचना तकनीक के चौथे युग (फोर्थ जेनरेशन) की बात हो रही है, दूसरी जगह अधिकांश लोगों को विकास की बुनियादी चीजें भी मयस्सर नहीं हैं । कभी भी यह नहीं बताया जाता कि टी. वी. से पहले न्यूनतम शिक्षा और स्मार्ट फोन के पहले समुचित स्वास्थ्य सुविधाएं जरूरी हैं । कोई भी कंपनी रिक्शावाले को फोन की जगह सस्ते में शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं क्यों नहीं मुहैया कराती हैं ? बाजार व्यवस्था की तो बात छोड़ दें, हमारी सरकारें भी इसके लिए अब पूरी ईमानदारी से आगे नहीं आती हैं । अभी तो हर कोई पूतना बने कृष्ण रूपी गाँव को गोद लेना चाहते हैं । वह बिल गेट्स जैसा पूंजीपति हो या हमारे माननीय सांसदगण हों या सेलिब्रेटी । कृष्ण तो पूतना की मंशा समझते थे, क्या गाँव के मासूम लोग इन विकासवादी शिकारियों की चालाकी समझ पाएंगे ? क्योंकि अब तो गाँवों में प्रेमचंद के रंगभूमि वाले सूरदास भी नहीं बसते, जो इनकी असली मंशा समझ पाएं और मरते दम तक इनका प्रतिवाद करें । विकास के नाम पर ये लोग मिलकर भारत के कुछ हिस्से को चमकाकर समाज में असमानता का एक नया पाठ पढ़ाएंगे । मुझे समझ में नहीं आता कि उन गाँवों को गोद लेने के क्या मानदंड होंगे ? कुछ गाँवों को चमकाया जाएगा, और बाकी गाँव अपनी दरिद्रता और अभागे होने पर सिर धुनेंगे । विकास का यही असली चेहरा है । वह समाज के कुछ हिस्सों को चमकाने के नाम पर बाकी जगहों पर जहालत, गरीबी और दरिद्रता फैलाता है ।
विकास के नाम पर पूरी दुनिया में होड़ मची हुई है । सभी विकास की सबसे ऊंची सोपान पर पहुँचने की हड़बड़ी में हैं । कभी-कभी लगता है कि विकास के नाम पर हम सभी युद्धरत हैं । विकास के नाम पर बहुत से लोगों की बलि दी जा रही है । बचपन में सुना था कि जब किसी बड़े पुल का निर्माण होता है तो उसके खंभों में छोटे-छोटे बच्चों की बलि दी जाती है । उस समय ये बातें बेबुनियाद लगती थीं । आज यह साफ देख पा रहा हूँ कि दुनिया के छोटे से हिस्से को रौशन करने के लिए बहुतों के घरों की डिबरियों से तेल तक छीनने की साजिश चल रही है । इस विकास ने हमें बहुत सारी भौतिक सुख-सुविधाओं के संसाधन मुहैया तो कराएं हैं, लेकिन दूसरी तरफ हमें अमानवीय भी बनाया है । विकास के नाम पर हो रही हत्याओं को देखते हुए कभी-कभी मन में यह ख्याल आता है, कि क्या विकास के इन महारथियों में कोई ऐसा भी होगा, जो सम्राट अशोक की तरह कलिंग के युद्ध में मारे गए सैनिकों (आमजनों, गरीबों, वंचितों) के बारे में सोचेगा ?
आज हम विकास के शिखर पर हैं । रोज नए-नए आविष्कार सामने आ रहे हैं । आज तमाम सोफ्टवेयर कंपनियां ऐसी प्रणालियों का निर्माण करने में लगी हैं, जिनमें मनुष्य के विचार करने की शक्ति से कहीं ज्यादा गहराई से विचार करने की, निर्णय लेने की क्षमताएं होंगी । इनमें ही एक कंपनी गूगल ने पिछले साल एक कंपनी बनायी है केलियो । यह बायोटेक कंपनी है, इसका विषय जीवन की अवधि बढ़ाने (उम्र बढ़ाने) पर अध्ययन, शोध और खोज करना है । कुछ दिनों बाद धीरे-धीरे अजरता और अमरता की भी खोज शुरू होगी ! मनुष्य अपने भौतिक सुख के लिए प्रकृति तथा समस्त प्राणियों को अपना आहार बना रहा है । अपनी विलासिता के लिए सबका दोहन कर रहा है। वह भीषण रूप से स्वार्थी हुआ है । आज वह अपने ऐश्वर्य के लिए कुछ भी करने पर अमादा है । मनुष्य सभ्यता के संपूर्ण इतिहास में इतना स्वार्थी और निरंकुश कभी नहीं हुआ था । प्रकृति के शाश्वत नियमों को बदलकर वह खुद के विनाश का कारण बनेगा । विकास का यह वरदान एक दिन भस्मासुर की तरह मानवता का ही नाश करेगा । मनुष्यता के इस संकट को देखकर प्रसाद के कामायनी की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं-
अपने में सब कुछ भर कैसे व्यक्ति विकास करेगा ?
यह एकांत स्वार्थ भीषण है अपना नाश करेगा।