एक बार लक्ष्मी के मन में यह भाव आया कि पार्वती अपने गृह विहीन पति के साथ अभावों में होंगी। वे उनसे मिलाने गईं। पार्वती के मुख पर उन्हें कोई उदासी नहीं दिखी। वाह्य-वैभव रहित सम्पन्नता देख कर लक्ष्मी चकित हुईं।
लक्ष्मी ने उपहास भरा प्रश्न किया – ” तुम्हारे पति कहाँ गए है?”
पार्वती मुस्कराईं। कहा – “सम्भवतः रजा बलि की राज सभा में, जहाँ तुम्हारे पति उस बेचारे भक्त से उसकी संपूर्ण राज्य-सम्पदा ही मांगने वाले हैं और वह भी छल से।”
अपमान की ध्वनि वाले इस उत्तर का बदला लक्ष्मी ने इस तरह लेना चाहा -“मैं बैलवाही पशुपति की बात पूंछ रही हूँ सखि!”
“मुझे लगता है , वे कहीं नंदन कानन के चरवाहे की खोज में न निकल गए हों।”
लक्ष्मी को इस बात की ध्वनि अच्छी नहीं लगी। उन्होंने तनिक और तीखे बाण छोड़े -“सर्पों की माला गले में डाल कर ही गए हैं क्या?”
” तो और क्या; शेषशायी विष्णु से मिलाने भला और किस सज्जा में जाते!”
लक्ष्मी कुछ बोलतीं, लेकिन तभी सरस्वती ने आकर स्थिति को अपने नियंत्रण में ले लिया। विषय बदल गया। लौटते समय रास्ते में सरस्वती ने लक्ष्मी से कहा -“बहन! पार्वती की किसी प्रकार का अभाव बोध नहीं है। यह तो आदि योगी शिव की प्रिय और शिष्या भी हैं; इसके पति ने इसे मूल आनंद का गूढ़ रहस्य बता दिया है।”
सौंदर्य की प्रतिमूर्ति हरिप्रिया लक्ष्मी सरस्वती के कथन का आशय समझ गईं। उन्होंने जब विनम्रता से सिर झुका लिया, तो इससे उत्साहित होकर सरस्वती ने पुनः कहा, ” आज के इस अनुभव के बाद तुम मुझसे एक प्रतिज्ञा करो।”
लक्ष्मी ने जिज्ञासु होकर सरस्वती को देखा।
सरस्वती ने लक्ष्मी के कमल जैसे करों को थाम कर कहा-“आज से तुम ऐसे किसी व्यक्ति को क्षुब्ध नहीं करोगी जो योग – रत हो। –सरस्वती के इस सदाग्रह से लक्ष्मी अभिभूत हो उठीं।
उन्होंने उन्हें वचन दिया और तब से योगी के कमण्डलु में संतोष बन कर बसने लगीं।